मनीषियों के विचार से-
'धन गया, तो कुछ नहीं गया,
स्वास्थ्य गया, तो कुछ गया, और
चरित्र गया, तो सबकुछ गया'-
दूसरे शब्दों में ,
चरित्र एक बेशकीमती धन है,
आला रतन है।
सोचता हूँ,
ऐसे कीमती रतन को
आज के ज़माने में
अपने पास रखना -
खतरे से खाली नहीं।
इसलिए-
मैंने फ़ैसला किया है कि
इस झंझट में ही न पडूं-
और इसे दूसरो के लिए छोड़ दूँ ;
अपनी संचयिका मनोवृति को
कुछ परोपकार की ओर मोड़ दूँ?