मनीषियों के विचार से-
'धन गया, तो कुछ नहीं गया,
स्वास्थ्य गया, तो कुछ गया, और
चरित्र गया, तो सबकुछ गया'-
दूसरे शब्दों में ,
चरित्र एक बेशकीमती धन है,
आला रतन है।
सोचता हूँ,
ऐसे कीमती रतन को
आज के ज़माने में
अपने पास रखना -
खतरे से खाली नहीं।
इसलिए-
मैंने फ़ैसला किया है कि
इस झंझट में ही न पडूं-
और इसे दूसरो के लिए छोड़ दूँ ;
अपनी संचयिका मनोवृति को
कुछ परोपकार की ओर मोड़ दूँ?
मैंने फ़ैसला किया है कि
जवाब देंहटाएंइस झंझट में ही न पडूं-
और इसे दूसरो के लिए छोड़ दूँ ;
अपनी संचयिका मनोवृति को
कुछ परोपकार की ओर मोड़ दूँ?
bahut sundar
आपका चिटठा खूबसूरत है , आपके विचार सराहनीय हैं ,
जवाब देंहटाएंयूँ ही लिखते रहिये , हमें भी ऊर्जा मिलेगी
धन्यवाद,
मयूर
अपनी अपनी डगर
sarparast.blogspot.com
आर.आर.अवस्थी जी!
जवाब देंहटाएंव्यंग्य के द्वारा बहुत करारा प्रहार किया है।
बधाई!
bahut karara vyangya.
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