शनिवार, 27 मार्च 2010

जीवन के स्वयं समर्पण को मैं जीत कहूं या हार कहूं?
मैने देखी प्राचीर-रश्मि
देखा संध्या का अंधकार,
पूनों की रजत ज्योत्सना में,
लख सका अमा का तम अपार,

इन काली-उजली घड़ियों को, मैं दिवस या कि अवसान कहूं?
जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?
जीवन की कश्ती छोड़ चुका,
सरि की उत्ताल तरंगों में,
बढ चली किन्तु पथभ्रष्टा सी
मारुति के मत्त झकोरों में,

लहरों झोंको से निर्मित पथ को , कूल या कि मझधार कहूं?
जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?
अपना सबकुछ खो देने पर,
अपनी सर्वस्व प्राप्ति देखी,
सर्वस्व हार जाने पर भी,
अपनी सम्पूर्ण विजय देखी,

तब, इस सम्पूर्ण समर्पण को, वंचना कहूं या लब्धि कहूं?
जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?


मंगलवार, 19 मई 2009

परोपकार

मनीषियों के विचार से-

'धन गया, तो कुछ नहीं गया,

स्वास्थ्य गया, तो कुछ गया, और

चरित्र गया, तो सबकुछ गया'-

दूसरे शब्दों में ,

चरित्र एक बेशकीमती धन है,

आला रतन है।

सोचता हूँ,

ऐसे कीमती रतन को

आज के ज़माने में

अपने पास रखना -

खतरे से खाली नहीं।

इसलिए-

मैंने फ़ैसला किया है कि

इस झंझट में ही न पडूं-

और इसे दूसरो के लिए छोड़ दूँ ;

अपनी संचयिका मनोवृति को

कुछ परोपकार की ओर मोड़ दूँ?

गुरुवार, 14 मई 2009

ज़िन्दगी:नए प्रतिमान

जिंदगी,
एक शंख है
जिसे मुंह भर फुत्कारो-
तो बोलता है,
अधरों पर डोलता है
बाकी तो वह पोल है
जितना पीटो उतना बोले,
ऐसा ढोल है।
भई, दुनिया गोल है।
**
ज़िन्दगी
एक छाता है,
जिसे सर पर उठा रखो
तो, छाया दे,
अशरीरी काया दे;
बाकी तो वह कुकुरमुत्ता है-
जो सूरत से अच्छा है,
पर धागे सा कच्चा है।
**
ज़िन्दगी
एक ईंट है
जिसे कारीगरी अंगुलियाँ उठा लें,
तो मीनारें झूम उठें,
अम्बर को चूम उठें,
बाकी तो वह मिटटी है
जो लातों से कींची गई

हाथों से भींची गई-
और, कर दी गई
अग्नि की लपटों में कैद-
अन्तिम संस्कार के लिए।
**
पर दरअसल-
जिंदगी न तो शंख है,
न छाता है,
और न ही ईंट है।
वरन
एक ऐसी अंतहीन कहानी है
जिसमें चिडिया-
फुर्र करके उड़ती रहती है-
एक......दो.......तीन...
और अनंत।

गुरुवार, 7 मई 2009

चंद मुक्तक..

(१)
चाँद उठता है तो तम दूर चला जाता है,
प्यार की छाँव में गम दूर चला जाता है,
चलती राहों पे अपना प्यार लुटाने वालो,
इश्क की ओट में ईमान छला जाता है।
(२)
एक मैं हूँ की मुझे भूल याद आती है,
एक वो हैं कि उन्हें याद भूल जाती है,
याद औ' भूल में बस फर्क सिर्फ़ इतना है,
एक रोती है , मगर एक मुस्कुराती है।
(३)
राज़ तो राज़ है, खोला नहीं जाता,
ईमान की हर बात को तोला नहीं जाता,

दिल के जज़्बात का हर लफ्ज़ जब बनकर आंसू,
आँख पर आ जाए तो, बोला नहीं जाता।

मंगलवार, 5 मई 2009

"जीवन-दीप्ति गई अम्बर को, सहसा निशा हुई"

अनंत की अमराइयों से

तादात्म्य स्थापित कर ,

मानवीय जगत को

पावन स्नेह का अवदान देने वाली ,

पलकों में रची -बसी

दिवंगता लाडली बिटिया 'प्रियंका' की पुण्य- स्मृति में

यह अश्रुसिक्त काव्यांजलि...........

दीप की देह में यदि नेह है, जलन भी है।

देह के नेह को श्रृंगार है, कफ़न भी है।

ज़िन्दगी नाम नहीं सिर्फ़ मुस्कुराने का,

उम्र की राह में बहार है, घुटन भी है।