शनिवार, 27 मार्च 2010

जीवन के स्वयं समर्पण को मैं जीत कहूं या हार कहूं?
मैने देखी प्राचीर-रश्मि
देखा संध्या का अंधकार,
पूनों की रजत ज्योत्सना में,
लख सका अमा का तम अपार,

इन काली-उजली घड़ियों को, मैं दिवस या कि अवसान कहूं?
जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?
जीवन की कश्ती छोड़ चुका,
सरि की उत्ताल तरंगों में,
बढ चली किन्तु पथभ्रष्टा सी
मारुति के मत्त झकोरों में,

लहरों झोंको से निर्मित पथ को , कूल या कि मझधार कहूं?
जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?
अपना सबकुछ खो देने पर,
अपनी सर्वस्व प्राप्ति देखी,
सर्वस्व हार जाने पर भी,
अपनी सम्पूर्ण विजय देखी,

तब, इस सम्पूर्ण समर्पण को, वंचना कहूं या लब्धि कहूं?
जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?


4 टिप्‍पणियां:

  1. मैने देखी प्राचीर-रश्मि
    देखा संध्या का अंधकार,
    पूनों की रजत ज्योत्सना में,
    लख सका अमा का तम अपार,

    इन काली-उजली घड़ियों को, मैं दिवस या कि अवसान कहूं?
    जीवन के स्वयं समर्पण को, मैं जीत कहूं या हार कहूं?


    बहुत सुन्दर गीत लिखा है आपने!

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  2. इस पढ़ी हुई रचना ने पुनः आनंद दिया !
    प्रणाम सहित--आनंद.

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  3. इतना अच्छा गीत पढ्ने को मिला,बहुत खुशी हुई..

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